शरद पूर्णिमा बहुत सुहानी
गीत(16/14)
शरद पूर्णिमा बहुत सुहानी,
मन में प्रीति जगा देती।
शीतलताई भी तो उसकी,
विरह-अगन सुलगा देती।।
विमल चाँदनी नभ की शोभा,
विरही मन लख तड़प उठे।
ऐसी अनुपम शोभा लखकर,
विरह-अगन भी भड़क उठे।
मधुर मिलन की आस जगा कर,
भाव निराश भगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
प्रीति पुरानी और निखरती,
शरद-पूर्णिमा रात को।
हल्की ठंडी रात उजाली,
मधुर करे मुलाकात को।
खाई गई क़सम ऐसे में,
दिल को नहीं दगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
निर्मल-स्वच्छ गगन नीला भी,
शोभा और बढ़ा देता।
रजनी का शशि-दीप तिमिर पर,।
चादर ज्योति चढ़ा देता।
प्रकृति सुंदरी आभा-मंडित,
खिन्न भाव विलगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
शरद-पूर्णिमा रजनी को ही,
रास रचाई नटवर ने।
सभी गोपियों को सँग लेकर,
धूम मचाई प्रियवर ने।
परिभाषित कर प्रेम-रूप को,
नव संबंध सगा देती।।
विरह-अगन सुलगा देती।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
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